मेरे जानकारी नुसार अद्वैतवाद के प्रथम प्रतिपाता आद्य शंकराचार्य हैं। ये एक महान तत्वज्ञान है।
अद्वैतवाद कहता हैं ब्रह्म सत्यं, जगं मिथ्या। इसका अर्थ कुछ जन करते हैं कि केवल ब्रह्म सत्य हैं और जग नहीं ही है। परंतु ऐसा नहीं हैं। सच्चा सत्य वहीं जो शाश्वत हैं। मिथ्या का अर्थ है जो सदा के लिए एक जैसा नहीं है, परिवर्तन हो रहा है। कुल मिलाकर हम कह सकते है कि परिवर्तनशील जग में कुछ तो है जो शाश्वत हैं और ये संपूर्ण तर्कसुसंगत बात है, तर्कविहीन नहीं।
परंतु इसका अर्थ ये नहीं कि 'स्वरूपों' में कुछ भेद नहीं। जब तक जग है, स्वरुपोंमे भेद रहेगा ही। और मिथ्या हैं तो भी जग रहेगा ही।
अगर मेरे इस निवेदन से किसी 'सच्चे' सनातनी की भावनाएं आहत होती हैं तो पूर्ण मन-विचार से क्षमा प्रार्थी हूं।
धन्यवाद!
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